November 21, 2025

घराट

खबर पहाड़ से-

दो सितंबर 1994 को छह आंदोलनकारियों की शहादत से राज्य तो बना पर सपने साकार नहीं हो पाये।

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देहरादून : उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मसूरी की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता। राज्य आंदोलन में दो सितंबर 1994 का दिन भले ही इतिहास का काला दिन बन गया हो लेकिन राज्य निर्माण की बुनियाद यहीं से शुरू हुई और वर्ष 2000 में उत्तराखंड एक नये राज्य के रूप में भारत के नक्शे पर उभर गया। हालांकि राजय आंदोलन पहले से चल रहा था, लेकिन खटीमा में पुलिस गोलीकांड के विरोध में मसूरी में दो सितंबर को हो रहे मौन विरोध प्रदर्शन पर पुलिस की गोलियों ने भले ही छह आंदोलनकारियों व एक पुलिस अधिकारी के प्राण हर लिए लेकिन उसी दिन से राज्य निर्माण की बुनियाद पड़ चुकी थी। लेकिन दुर्भाग्य ही है कि राज्य बनने के बाद जिन सपनों के लिए उत्तराखंड का निर्माण किया गया था वह कहीं मरिचिका के समान ओझल हो गये।

दो सिंतबर का दिन राज्य आंदोलन की ऐसी घटना थी जिसने तत्कालीन उत्तर प्रदेश को ही नहीं पूरे भारत व विश्व को झकझोर कर रख दिया था। राज्य आंदोलन चरम पर था तभी खटीमा में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलिया चला दी जिसमें कई लोगों ने शहादत दी। जैसे ही यह खबर मसूरी पहुंची तो यहां पर क्रमिक अनशन चल रहा था व वर्तमान शहीद स्थल पर जहां पहले एक भवन था वहां क्रमिक अनशन करने वालों को पुलिस ने रात ही उठा दिया। व उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर पुलिस व पीएसी ने कब्जा कर लिया। सुबह हुई तो खटीमा कांड के विरोध में मौन जुलूस निकालने की तैयारी चल ही रही थी कि पता चला कि झूलाघर पर पुलिस ने कब्जा कर लिया है व पूरे क्षेत्र को घेर लिया है तथा इसे छावनी बना दिया गया है। जिससे लोगों में आक्रोश भड़क गया। कुछ लोगों ने मौन जुलूस से पहले ही झूलाघर पर प्रदर्शन करने का प्रयास किया तो उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया व जो क्रमिक अनशन पर बैठे थे उन्हें भी गिरफतार कर लिया गया। इसकी सूचना मिलते ही आंदोलनकारियों मे ंगुस्सा आ गया लेकिन उसके बाद भी लोगों ने संयम से कार्य लिया व जिन आंदोलन कारियों को पकड़ा गया उन्हें किंक्रेग पर छुडाने का प्रयास भी किया। तब लंढौर की ओर से एक जुलूस निकला व एक जुलूस किंके्रग की ओर से लाइब्रेरी होता हुआ झूलाघर की ओर बढ़ा। लंढोर की ओर से निकले जुलूस ने झूलाघर को पार कर दिया तब पुलिस ने हथियार डाउन कर जुलूस को जाने दिया लेकिन हावर्ड होटल के समीप दोनो जुलूस मिल गये व वापस झूलाघर की ओर आ गये व झूलाघर पहुंच कर पुलिस व पीएसी के द्वारा उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर किए गये कब्जे को हटाने के लिए सभागार की ओर बढ़े ही थे कि पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चला दी। वहीं दूसरी ओर गनहिल की पहाड़ी से भी पथराव शुरू हो गया। इससे भगदड़ मच गयी व छह आंदोलन कारी शहीद हो गये। जिसमें हंसा धनाई, बेलमती चैहान, बलबीर नेगी, मदन मोहन ममगाई, धनपत सिंह व राय सिंह बंगारी। इसी बीच पुलिस पुलिस व जनता के टकराव को रोकने उतरे पुलिस के उपाध्यक्ष उमाकांत त्रिपाठी को पुलिस की गोली लगी व वह भी मौके पर गिर गये उन्हें व घायलों को राजकीय सेंटमेरी अस्पताल उपचार के लिए ले जाया गया जहां पुलिस उपाध्यक्ष उमाकांत त्रिपाठी ने दम तोड़ दिया। पुलिस ने अपनी गरिमा को ताक पर रखकर सिर पर गोलियां बरसायी जो उनकी कू्ररता का प्रमाण है जबकि पुलिस को आदेशित किया जाता है कि वह पैरों पर गोली चलाये। पहले तो लोगों ने समझा कि ये गोलियां रबर की हैं लेकिन जब आंदोलनकारी मरने लगे तो देखा कि यह असली गोली है। इसके बाद पुलिस ने कर्फयू लगा दिया। पुलिस की दरिंदगी यहीं नहीं थमी व आंदोलनकारियों को पुलिस के उत्पीड़न का नंगा नाच झेलना पड़ा। कई आंदोलनकारियों की बेहरमी से पिटाई की गई, घरों में रात को जाकर आंदोलनकारियों को गिरफतार किया गया व उनका उत्पीड़न किया गया। 47 आंदोलनकारियों को गिरफतार किया गया व जेल भेजा गया उनके साथ जो दुव्र्यवहार किया गया वह किसी से छिपा नहीं है। इसी बीच पुलिस ने तत्कालीन विधायक राजेंद्र शाह पर सहित दो अन्य नेताओं पर पुलिस ने काला कानून मीसा लागू कर दिया उनके साथ जो मारपीट व अभद्रता की गई उसकी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। ऐसा जुर्म तो गुलाम भारत में आजादी के आंदोलनकारियों के साथ भी नहीं हुआ होगा। अगर कहें कि पुलिस ने सारी हदें पार कर दी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन राज्य आंदोलन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए उत्तराखंड की जनता के साथ मातृशक्ति, युवा शक्ति, व्यापारी, कर्मचारी आदि सभी ने मिल कर आंदोलन को गति दी। उस समय प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी व केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। इसके बाद आदोंलन और तेज हुआ, मसूरी में एक और पुलिस दरिंदगी की घटना बाटाघाट कांड हुआ फिर दो अक्टूबर को दिल्ली कूच के दौरान रामपुर तिराहा व मुजफफर नगर में क्या हुआ किसी से छिपा नहीं है। पहाड़ों की रानी मसूरी ने राज्य आंदोलन को दिशा दी व जो यहां से आंदोलन के दौरान घोषणा होती थी उसे पूरे प्रदेश में माना जाता था। और छह साल बाद वर्ष 2000 को तत्कालीन भाजपा की सरकार व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने उत्तरखंड राज्य बनाने की घोषणा कर दी। राज्य बना लोगों को लगा कि अब नई सुबह हो गई है। इसका लाभ यहां के युवाओं को मिलेगा, महिलाओं को मिलेगा, पलायन रूकेगा व विकास होगा। लेकिन राज्य बनने के 19 साल बाद भी राज्य की स्थित जस की तस है। पहाड़ आज भी विकास को तरस रहे हैं। जिस सपने को लेकर राज्य निर्माण किया गया था वह सपने चकनाचूर हो गये। और यह मात्र राजनैतिक भूगोल में एक राज्य बनकर रह गया। आज भी पहाड़ों में कोई सुविधा नहीं हैं महिलाओं के सर ने न पानी के बंठे हटे न पीठ से घास लकड़ी का बोझ हटा। आज सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांव के लोग पलायन करने पर मजबूर हो गये हैं। गांव खाली होकर नो मैन लैंड का हिस्सा बन रहे हैं। आखिर क्या इसी लिए राज्य आंदोलनकारियों ने शहादतें दी थी। राज्यआंदोलन कारियों को पेंशन व नौकरी का झुनझुना पकड़ा दिया गया। उसमें भी आज तक कई आंदोलनकारी चिन्हींकरण को लेकर सड़कों पर उतर कर शासन प्रशासन के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं। जिन युवाओं को रोजगार के सपने देखे थे वह आज मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। 10 प्रतिशत आरक्षण पर भी सरकार की ठीक से पैरवी न कर पाने के कारण उसका लाभ भी यहां की जनता को नहीं मिल पाया है। यहां तक कि पुलिस के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं हो पायी जबकि आंदोलनकारियों पर सीबीआई के मुकदमे चले उन्होंने एक दशक से भी अधिक समय तक मुकदमों को झेला लेकिन दोषियों के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई। आज अगर 26 साल पहले की इस घटना को याद करें तो रूह कांप उठती है। यह दिन हमेशा के लिए इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हो चुका है। पुलिस ने बर्बरता की सारी सीमाएं लांघी, यहां तक कि तत्कालीन एसडीएम पर भी पीएसी ने बंदूकतान कर गोली चलाने के आदेश पर हस्ताक्षर करवाये, पुलिस का वहशीपन देख आज भी लोग भय से कांप उठते हैं। आज एक बार फिर केंद्र शासित प्रदेश की मांग उठने लगी है। क्यों कि राज्य बनने के बाद केवल नेताओं व अधिकारियों का भला हुआ जो शहर स्तर के नेता थे वे प्रदेश स्तर के बन गये, जिन अधिकारियों को अपने कार्यकाल में एक या दो प्रमोशन मिलने थे वह आज अपने विभागों के उच्च पदों पर बैठ गये लेकिन आम जनता आज भी अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही है और राज्य उन आंदोलनकारियों को दुत्कार रहा है। जिन आंदोलनकारियों ने शहादतें दी उन्हें केवल दो सितंबर को याद किया जाता है उसके बाद सभी भूल जाते हैं और अब तो लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने भी नहीं आते। जबकि उनकी शहादत पर बने राज्य में दो सितंबर को मेला लगना चाहिए था। अब शोक का नहीं राज्य बनने के लिए शहादत देने वालों के नाम पर मेले का आयोजन किया जाना चाहिए।

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